Q.

Answer by Shwetabh Pathak :-

सेवा भी साधना का महत्वपूर्ण अंग है l

'सेवा ही साधना है' यह कहना भी कोई अतिशयोक्ति नहीं हैl

जितनी महत्वपूर्ण साधना होती है उतनी ही महत्वपूर्ण सेवा होती है l

साधना मार्ग से जो हमें 10 सालों में मिलने वाला है वही चीजें हमें सेवा करने से आधे से भी कम समय में प्राप्त हो सकती है l बस सेवा सच्चे समर्पण भाव से होनी चाहिए l

भगवान ने हम लोगों के ऊपर बड़ी कृपा की है l भगवान को पता है कि कुछ प्राणी ऐसे भी हैं जिनका साधना में , रूप ध्यान में , नामजप में मन नहीं लगेगा l

ऐसे लोगों के लिए भगवान ने सेवा का मार्ग प्रदान किया है l

जब आप सेवा सच्चे समर्पण भाव से करते हैं तो उस सेवा करने के फलस्वरूप हमारा अंतःकरण धीरे-धीरे शुद्ध होने लगता है l जिसके फलस्वरूप हमारा मन शनैः शनैः साधना मार्ग में रुचि लेने लगता है l

सेवा करने के लिए धाम सेवा , तीर्थ सेवा , संत सेवा , सद्गुरु सेवा इत्यादि सेवा कर सकते हैं l

सेवा के तीन अंग होते हैं :- तन, मन, धन l आपके पास तन , मन , धन में से जो समर्थ है आप उस सामर्थ्य के अनुसार धाम सेवा, तीर्थ सेवा, संत सेवा कर सकते हैं l

गौ सेवा भी आपकी साधना में काफी उपयोगी साबित हो सकती हैं l बशर्ते कि गौ सेवा करते समय आपका उद्देश्य आत्मिक कल्याण का होना चाहिए ना कि लौकिक कल्याण का l

भगवान की सेवा का भी साधना मार्ग बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है l किंतु भगवान तो मायातीत, त्रिगुणातीत, माया से परे, समस्त संसार के स्वामी होते हैं l भगवान को हमारे किसी भी चीज की सेवा की कोई आवश्यकता नहीं है l और ना ही हम संसारी, पतित, माया लिप्त जीव भगवान की सेवा कर सकते हैं l

जो माया से परे का तत्व है , माया जिसे छु भी नहीं सकती है, जिसकी सेवा में माया हमेशा लगी रहती है उस दिव्य, चिन्मय, अचिंत्य ,अवर्णनीय भगवान को हम संसार की मायाबद्ध चीजों से कैसे खुश कर सकते हैं ??

लेकिन लेकिन लेकिन.....

भक्ति और साधना तो भाव प्रधान होती है l

एक साधक भाव में आकर , भगवान के प्रेम में भगवान के लिए जो कुछ भी करता है वह सब भगवान को स्वीकार है l

भक्ति के 5 भाव होते हैं -

शांत भाव

दास भाव

वात्सल्य भाव

साख्य भाव

माधुर्य भाव

अपनी भाव स्थिति के अनुसार साधक भाव से भगवान की सेवा करता है l

सेवा करने का एक ही उद्देश्य होता है कि किसी ना किसी तरह मन को भगवान से प्रेम हो जाए , मन भगवान के प्रेम से ओत- प्रोत हो जाए l

भगवान श्री राम जब माता शबरी के की कुटिया में पहुंचे तब माता शबरी ने भगवान श्री राम की सेवा में जूठे बेर दिए l तब भगवान श्रीराम ने माता शबरी के जूठे बेर की तरफ नहीं देखा उन्होंने माता शबरी के ह्रदय में उठने वाले समर्पण श्रृद्धा भाव को देखा l और उन बेर को ग्रहण किया तथा माता शबरी को अपना धाम प्रदान किया l

महर्षि वाल्मीकि साधना के पहले एक नंबर के घोर संसारी जीव थे l राम शब्द तक नहीं बोल पा रहे थे l उनके बुरे कर्म के प्रारब्ध के कारण वह राम बोलते थे लेकिन उनके मुंह से मरा शब्द निकलता था l उनके श्रद्धा समर्पण भाव को देखकर भगवान जी ने उनके ऊपर कृपा की तब जाकर वह महर्षि वाल्मीकि बने l

भाव का मैं भूखा हूँ, भाव ही एक सार है l भाव से भज ले मुझे तो भव से बेड़ा पार है l

गुरु / सद्गुरु की सेवा:-

जो गुरु अंतः करण को शुद्ध कर पतित जीवों अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं , ऐसे गुरु की सेवा करने का अवसर प्राप्त होना सभी के लिए सौभाग्य की बात होती है l

एक जीव किसी संत, गुरु, महापुरुष, की जितनी भी सेवा करता है उससे कहीं अधिक सेवा संत महापुरुष अपने शरणागत के ऊपर करते रहते हैं l

और मजेदार बात बताऊँ - शरणागत को पता भी नहीं चलता है कि संत, महापुरुष भी उसकी सेवा करते हैं l

जीव तो महापुरुषों के प्रति खुद को मात्र समर्पण करता है, शरणागत हो जाता है वास्तविक सेवा तो महापुरुष ही पतित जीव की करते हैं l

संसार की मायिक वस्तुओं ( मैटेरियल थिंग्स ) से संत महापुरुष की ; की गई सेवा का कुछ खास महत्व नहीं होता है l यह मात्र ऊंट के मुंह में जीरा की तरह होती है l

संत महापुरुष तो अपने शिष्य/शरणागत से तन और धन से सेवा की कभी उम्मीद ही नहीं करते हैं और उनको जरूरत भी नहीं होती है l

संत महापुरुषों सद्गुरु के लिए मन से की गई सेवा ही वास्तविक सेवा होती है l महापुरुष अपने जीवों के कल्याण के लिए जो सूत्र, उपदेश, सिद्धांत, साधना पद्धति बताते हैं उसी का मन से अनुसरण कर जीवन में अमल करना ( लागू करना ) ही वास्तविक सेवा होती है l

महापुरुषों की शरण में आए हुए जीवो का कल्याण हो, इसके लिए महापुरुष जीवों से तरह-तरह की क्रियाएं ( नौटंकी ) भी करवाते रहते हैं जिसका उद्देश्य सिर्फ यही होता है कि किसी ना किसी तरह इन पतित जीवों का मन भगवान में लगे l

सेवा करने में सावधानियां:-

जिस तरह दवा खाते समय कुछ परहेज करने होते हैं उसी तरह सेवा भाव में कुछ छोटे-छोटे परहेज करने आवश्यक हैं l अन्यथा चले थे अपना भला करने और होने लगा अनभला l

सेवा सच्चे समर्पण भाव से होनी चाहिए l

सेवा करते समय किसी भी प्रकार का मन में अभिमान नहीं आना चाहिए l अगर अहंकार आया तो पतन की संभावना बन गयी l

सेवा का उद्देश्य मात्र आत्मिक कल्याण होना चाहिए ना कि भौतिक कल्याण हेतु l

सेवा करने में हमें अपनी तुच्छ मायिक बुद्धि को एक तरफ कर देना है l

सेवा को गुप्त होनी चाहिए l गोपनीयम् गोपनियमम् गोपनीयम् प्रयत्नेन l

अगर किसी को इन सब सेवाओं का अवसर ना प्राप्त हो तो इसके लिए निराश नहीं होना है l गुरु के बताए हुए आदेशानुसार जो साधना बताई गई है उसको करिए उस स्थिति में यही सबसे बड़ी सेवा है l

अत: अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए -

भज गोविंदम भज गोविंदम गोविंदम भज मूढ़मते l

सेवा का अर्थ है अपने मनुष्य देह में प्राप्त दुर्लभ "समय" को शुद्ध तत्त्व में लगाना ।

क्योंकि मनुष्य देह का परम लक्ष्य एकमात्र यही है कि उस समय का सदुपयोग हो जाये । येन केन प्रकारेण उस प्राप्त समय को भगवान और उनसे संबंधित तत्व में लगा देना । यह समय तीन रूप से दिया जा सकता है ।

मन

तन

धन

सबसे प्रमुख मन है । यह निरंतर हरि और गुरु में लगे रहना ही सेवा है । भगवान और गुरु या संत के विपरीत एक क्षण को भी न सोचना सेवा है । भगवान और संतों के प्राप्य वाणी , शास्त्र और आदेश का पालन करना मानसिक सेवा है ।

उनके अनुकूल चिंतन रहना और उनके आदेशों को या साधना सम्बन्धी उपदेशों को ग्रहण कर उस मार्ग पर चलना सेवा है ।

दूसरा आता है तन से :-

तन का अर्थ है समस्त इन्द्रियों को हरि और गुरु के अनुकूल करना । अपने तन से जितना हो सके उतना उनके निमित्त समय देना । जितना समय तन द्वारा हम भगवदीय विषयों में देंगे , उतना ही हमें लाभ प्राप्त होगा । क्योंकि तन को लगाने पर मन का शुद्धिकरण होगा । क्योंकि इन्द्रियों का कार्य उसी के अनुरूप होगा । जीव जो समय संसार में देगा , वह भगवदीय तत्व में देगा तो उसका कल्याण ही होगा । तन के सेवा करने से अहंकार नष्ट होता है और अहंकार नष्ट होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है जिससे ज्ञान ,वैराग्य , भक्ति का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है ।

तन से सेवा करने से संतों महापुरुषों का सानिध्य मिलता है और समय आने पर रीझ कर वह अपनी गुप्त संपत्ति दे देते हैं जिसको प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी पाना शेष नहीं रहता ।

इसीलिए गीता में भगवान ने कहा है :- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

महापुरुषों के पास जाकर उनकी निष्काम सेवा करो तभी कुछ प्राप्त होगा । माँगने से नहीं मिलेगा ,वह स्वयं जब रीझ कर देंगे तभी । क्योंकि मांगेंगे तो हम अपनी बुद्धि के स्तर से , तो सब मामला खराब हो जाएगा । और जब वह सेवा से रीझ कर स्वयं देंगे तो वह उस तत्व को दे देंगे जो हमारी मन बुद्धि से परे होगा ।

क्योंकि आप उनकी सेवा करेंगे तो संत महापुरुष कोई ऋण स्वयं पर नहीं रखते , न रख सकते हैं । उसका फल मिलेगा ही मिलेगा । अगर सन्त महापुरुष नहीं भी देंगे तब भी उस ऋण को स्वयं भगवान उतारते हैं और वह स्वयमेव वह दे देते हैं जो हमने कभी कल्पना नहीं किया होता है ।

तीसरा आता है धन ।

धन से सेवा तब की जाती है जब हम तन से और मन से दोनों से सेवा करने में सक्षम नहीं हैं । आज के कलियुग में जो कि अर्थ प्रधान है , किसी के पास समय नहीं है कि वह गुरुओं के सानिध्य में वर्षों वर्षों सेवा कर के उनका लाभ प्राप्त करे ।

तो जो समय नष्ट कर या जिस समय को उसने धन में परिवर्तित किया है या जो समय उसने धन अर्जित करने में लगाया है , उसको भगवदक्षेत्र में लगाता है तो उसका वही लाभ मिलेगा जो उपरोक्त दोनों मन और तन लगाने से प्राप्त होगा ।

मतलब चाहे कोई भी हो , तन , मन , धन या जो कुछ भी है , सबका एकमात्र लक्ष्य है मनुष्य देह के समय को भगवद मार्ग पर लगाना । वह समय चाहे मन से हो , चाहे तन से हो या चाहे धन से । समय का फल वही मिलेगा ।

राजा हरिश्चंद्र ने सर्वस्व अर्पण किया अपने गुरु को और अंत में उन्हें वह सब मिल गया जो गुरु के संरक्षण में सदा रहने वाले शिष्य को मिलता है ।

इसी हेतु सभी राजा महाराजा प्रत्येक दिवस दान इत्यादि साधु महात्माओं को किया करते थे । ताकि कर्म क्षेत्र में रहते हुए भी वह धर्म और अघ्यात्म क्षेत्र के लाभ प्राप्त कर सकें । लेकिन मुख्य है समय देना ।

अन्यथा सेवा तो हम अल्पज्ञ जीव क्या करेंगे उन भगवदतत्वों का । सेवा तो सन्त महापुरुष हमारी करते हैं ,हमें अज्ञान से निकालकर सही मार्ग प्रदर्शित करते हुए साधना करवाकर परमानंद प्राप्ति करवाते हैं ।

यह तो किसी तरह संतों महापुरुषों ने हम नारकीय जीवों पर उपकार कर कृपा कर इस शब्द को हमारे लिए अनुकूल बनाया है ।

तो इसलिए सेवा उसी को कहा जाता है जितना प्रतिशत हम संतों महापुरुषों गुरुओं की वाणी और आदेशों का पालन कर साधना कर अपना दुःख निवृत्ति की ओर पग बढायें और उस परम दिव्य आनंद को प्राप्त कर कृत्य कृत्य हो जायें ।

In Short , in crisp , सेवा एकमात्र भक्ति है । भज सेवायाम धातु है संस्कृत में , उसी से यह निकला है ।

तो सेवा का अर्थ भक्ति ।

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