Q.

Answer by Shwetabh Pathak :-

तो आइए समझते हैं कि ये त्रिकाल या पँचकाल संध्या किसे कहते हैं ? विषय पर चलने से पहले बता देना चाहता हूँ कि यहाँ एकमात्र सिद्धांत या principle या philosophy को लेकर बात होगी , उसके पीछे के उद्देश्य को लेकर वार्ता होगी ।

क्योंकि कैसे होगा , क्या नियम है ये सब आपको हर जगह मिल जाएगा और सभी साधारण पण्डित भी बता देंगे ।

तो basics समझिये पहले ।

देखिये सूर्य , चंद्रमा , ग्रह , नक्षत्रों के प्रकाश की तरंगों का पृथ्वी के प्रत्येक जीव पर बहुत ही ज्यादा असर पड़ता है ।

अगर मैं यही कह दूँ कि इस सृष्टि के जीवन और चेतनता का आधार एकमात्र यह तरंगें ही हैं और यह हर तरह से जड़ चेतन को प्रभावित करती हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न समझियेगा ।

"तरंग विज्ञान" पर समय मिलते ही एक पुस्तक विस्तृत रूप से लिखूँगा । लेकिन यहाँ बहुत ही brief में समझाऊँगा ।

तो ये जो सूर्य चंद्रमा इत्यादि का प्रकाश है , या जो इनसे निकलने वाली सूक्ष्म तरंगे हैं वही मनुष्य या किसी जीव के जीवन को प्रभावित करती हैं । यह प्रकाश की intensity और प्रभावी गुण सूर्य , चंद्रमा , ग्रह , नक्षत्रों के कोण या angle, उसकी आवृति, किसी अन्य तरंगों का उक्त तरंगों या किरणों पर प्रभाव , उक्त ग्रह पर मौजूद Elements, Metals, और सूक्ष्म तत्वों पर पड़ने वाले या उनसे टकरा कर विकीरण होने वाले प्रकाश या उत्सर्जित तरंगों, और रास्ते पर कौन सा द्रव उन किरणों से टकरा रहा है इत्यादि ( बहुत कारण हैं ) पर निर्भर करता है।

हमारे प्रत्येक त्योहार, व्रत , उपवास , मुहूर्त , काल सब इन्हीं पर आधारित हैं । जो आप लोग ग्रह खराब होने पर नीलम, पन्ना, सोना , चांदी इत्यादि धारण करते हैं , वह सब इसी विज्ञान पर आधारित है ।

बस ये है कि हमें हमारे ऋषि मुनियों या Scientists ने एक formula तैयार करके दे दिया है , बस हमें उसमें values डालनी होती है।

यही तरंगें मनुष्य में विचार, मनोवेग, सोचने समझने की प्रवृत्ति, आवेग, क्रोध, निराशा , घृणा , प्रसन्नता आदि मनोवृत्तियों पर प्रभाव डालते हैं।

Normal way में समझिये जैसे पौधों को पता लग जाता है कि कब उन्हें फूल खिलाने हैं , कब बीज , कब पत्ते निकालने हैं इत्यादि । पशुओं में कब breeding period शुरू होना है , चींटियों को कब निकलना है और क्या किस समय करना है यह सब उनके अंदर प्राकृतिक तौर पर यही तरंगों द्वारा प्रभावीकरण होता है । यही उनमें समय से हार्मोनल secretions करता है जिससे वह breeding करते हैं या कोई भी process करते हैं । विश्व के प्रत्येक जीव के हर क्रियाकलाप इन्हीं तरंगों द्वारा निर्धारित होता है । चेतन ही नहीं यह जड़ को भी प्रभावित करते हैं ।

तो मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने वाले तीन गुण होते हैं । सत , रज और तम । सूर्य और चन्द्र के किरण , उनकी स्थिति , उनका कोण , उनका revolution और rotation period से लेकर समस्त अवयव मनुष्य के सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण प्रवृत्ति को प्रभावित करता है । या scientific way में समझिये यही प्रभावित करते हैं मानव शरीर के विभिन्न Hormonal system का secretion के process को ।

इसी विभिन्न समय की स्थितिज को साधारण शब्दों में काल कहते हैं । राहु काल , अमृत काल , पुष्य काल इत्यादि सब यहीं से बनता है ।

सुबह के समय सतोगुणी प्रभाव अत्यधिक होता है । उस समय स्वभावतः आपका मन शांत चित्त होगा और आध्यात्म में लगेगा । दोपहर का वक़्त राजसी गुण प्रधान होता है । और इसी तरह सूर्य डूबते ही तमोगुण का अधिपत्य हो जाता है । आपने स्वयं देखा होगा शाम होते ही मांस, मदिरा , वेश्यावृत्ति , अपराध इत्यादि इन सब को बल मिलना शुरू हो जाता है। मनुष्य का मन उक्त समय यह सब करने को स्वयमेव प्रवृत्त होने लगता है । मनुष्य शरीर को तीनों कालों के अनुसार प्रभावित होता है ।

यही संधि काल जब सूर्य अपना कोण या सूर्य जब एक प्रहर को छोड़कर दूसरे प्रहर में प्रवेश करता है वही त्रिकाल कहलाता है । संध्या का अर्थ है संधि काल । जब दो प्रहरों का संयोग या मिलन होता है। इसी काल में हम अपने ईश्वर का स्मरण या प्रार्थना करते हैं । क्यों करते हैं ???

इसलिए करते हैं क्योंकि जो प्रहर शुरू हो रहा है , उस प्रहर के निमित्त हमारी इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , अंतःकरण एवं कर्म एकमात्र निज अर्थात आत्मा के कल्याण के लिए हो । यह प्रकृति या भगवान या उस परम तत्व से यह प्रार्थना की जाती है कि हमारा मन बुद्धि इत्यादि सब भगवद अनुकूल हो । हमारा प्रत्येक कर्म भगवदीय हो । प्रत्येक मंत्र से पहले हर इंद्रियों के शुद्धिकरण मंत्रों द्वारा भावना की जाती है । इसके बाद गायत्री मंत्र द्वारा यह प्रार्थना किया जाता है कि हमारा मन बुद्धि सब आपके अनुकूल हो । हमारी बुद्धि को भगवद प्रीत्यर्थ बनायें ।

हमारा सनातन धर्म एकमात्र इस तथ्य पर टिका है कि हम शरीर नहीं बल्कि इस शरीर में रहने वाली जीवात्मा हैं जो माया से प्रभावित होकर अपने अंशी भगवान को भूल गया है और उसका मुख्य उद्देश्य उसी आनंदमय चिदानन्दमय स्वरूप की प्राप्ति है । हर धर्म कर्म से लेकर मंत्र या प्रत्येक ifs and buts उसी के इर्द गिर्द चक्कर काटते हैं और उसी के उद्देश्य हेतु हैं ।

देखिये मंत्र क्या होता है ?? मंत्र का अर्थ है जो मन ( क्योंकि प्रमुख मन ही है जिसके कारण यह अनंतानंत जन्मों से जीवन मरण के बंधन में असह्य दुःख भोग रहा है ) का "त्राण" करे अर्थात मन को तार दे , मन के तारण का कारण बने । इसीलिए वेदों की समस्त श्रुतियों को मंत्र बोला जाता है ।

यह वेद मंत्र यह कहता है इत्यादि । श्लोक या स्त्रोत नहीं कहा जाता है , क्योंकि वेद का प्रत्येक मंत्र कल्याण करने में स्वयंसिद्ध है । देखिये प्राचीन काल में संस्कृत जन जन की भाषा थी । तो वह जो भी कहते थे उसका अर्थ जानते थे । आज तो लोग उन्हीं मंत्रों को बोलते हैं , स्त्रोत बोलते हैं या श्लोक बोलते जाते हैं जीभ से और उसका अर्थ ही नहीं जानते ।

गायत्री मंत्र का इतने लाख जप कर रहे हैं लेकिन अर्थ ही नहीं पता । तो ऐसे होता है जैसे तोता या मेंढक टर्र टर्र करे । तोते को आप राम राम सिखा दो तो वह जीवन भर राम राम रटता रहेगा , तो क्या तोते को मुक्ति मिल जाएगी ?? तोते के कर्म का फल उसे मिलेगा ???

नहीं !! क्योंकि उसकी क्रिया का कार्य note ही नहीं होगा । क्योंकि भगवान के क्षेत्र में एकमात्र मन के द्वारा किये गए कर्म ही मान्य हैं और उसी का फल मिलता है । भगवान को आप बुद्धू नहीं बना सकते । संसार वालों को तो माथे पर एक टीका , गेरुवा वस्त्र पहन कर , आँख बंद कर स्वयं को भगवद प्राप्त महापुरुष घोषित करवा सकते हैं लेकिन भगवान को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । मंत्र तभी फलित होते हैं जब वह पूरे मनोभाव से , विधि विधान से किये जायें अन्यथा वही होगा कि रेत को कितना भी पीस लीजिये उसमें से तेल नहीं निकलेगा ।

आज सनातन धर्म के 90% से ज्यादा पण्डित , पुरोहित या सामान्य जन भी स्त्रोत, श्लोक या मंत्र रट लेते हैं और बाहरी इन्द्रिय से उसको बोलते हैं बिना उसका अर्थ जाने या उसका उद्देश्य जाने । आज लोग धर्म और आध्यात्म तक में अंतर नहीं जानते तो ये सब बातें उनके लिए दूर की कौड़ी है। जितने भी लोग त्रिकाल संध्या करते हैं उनमें से अधिकतर लोगों को यह नहीं पता होगा कि यह क्यों करते हैं। बस शास्त्र ने कहा है कि करना है , बस उसके पीछे का मर्म उद्देश्य से रहित हैं और इसी भ्रम में है कि हम सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि ये हम कर रहे हैं । ये लोग उसी तरह हैं जो विद्यालय तो जा रहे हैं लेकिन विद्यालय जाने के पीछे उद्देश्य क्या है इससे अनभिज्ञ हैं। ऐसे लोग फिर अपना समय , धन , बल सब नष्ट कर लेते हैं और विद्या से रहित ही रहते हैं ।

इसीलिए आज के समय में कोई मंत्र, यज्ञ , हवन , उपचार निरर्थक रह जाते हैं और फिर अंत में यही लोग नास्तिक बन कर औरों को भ्रष्ट करते हैं कि अमुक से कुछ नहीं होता ,सब बकवास है।

पंच काल संध्या या पंच यज्ञ कर्म या त्रिकाल संध्या हर सनातन धर्मी को आवश्यक बताया गया है। पंचयज्ञ तो प्रत्येक सन्यासी को आवश्यक है क्योंकि वह गृहस्थ आदि कर्मों से निवृत्त है और उसके पास समय का अभाव नहीं है । गृहस्थ अगर पंचकर्म यज्ञ न कर पाए तो वह त्रिकाल संध्या करे ।

यही संध्या का कर्म मुसलमान पूरे मनोवेग से पालन करते हैं जिसे नमाज बोला जाता है। उनका अलग तरीका है करने का । बस एक हिन्दू ही ऐसी प्रजाति है जो इन सबसे विहीन है और सब भूल चुकी है।

संध्या करने का उद्देश्य मैंने आपको बता दिया । यही पंच यज्ञ कर्म है ।

यज्ञ का अर्थ बड़े ही साधारण शब्दों में समझिये कि वह कर्म जिससे उसका ज्ञान हो सके । (य + ज्ञ ) आजकल लोग यज्ञ का अर्थ समझते हैं कि आग जलाकर उसमें सामग्री डाल दो । यह सबसे निम्नतम यज्ञ बोला गया है। ( यज्ञ पर विस्तृत लेख फिर कभी ) ऐसे ही यज्ञोपवीत है ।

क्या है यज्ञोपवीत ?? बस बड़े ही साधारण अर्थों में गधे की बुद्धि से समझ लीजिए कि वह सूत्र ( formula ) जिससे उसका ज्ञान हो सके या जो उसका ज्ञान प्राप्त करने में सहायक बने । इसीलिए इसे जनेऊ बोला गया । जिससे उसको जाना जा सके या जो उसे जानने में सहायक हो । ( जन शब्द ज्ञान से बना है ) ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं अर्थात ब्रह्म का ज्ञान कराने वाला formula या तत्व । उपवीत भी कहते हैं अर्थात जो ऊपर अर्थात उस परम तत्व के दिग्दर्शन का माध्यम बन सके । इसे धारण करने को उपनयन संस्कार भी कहते हैं ।

उपनयन माने - उप + नयन अर्थात ब्रह्म के निकट ले जाने वाला । उसमें कितने धागे होते हैं , गृहस्थ और सन्यासी का जनेऊ कितने धागों से बना होता है ,उसका उद्देश्य क्या है , किसे पहनना चाहिए , इसके नियम क्या हैं ,यह सब अगले क्रम में । बस एक formula रट लीजिये , रोम रोम में समाहित कर लीजिए कि सभी कर्म धर्म नियम कानून , त्योहार ,व्रत , उपवास , मंत्र, तंत्र , यंत्र सबका अंतिम और एकमात्र उद्देश्य भगवदप्राप्ति ही है । सर्व धर्म (या कर्म या पर्व ) लक्ष्य एक ,गोविंद राधे । जग से हटाकर मन हरि में लगा दे ।।

जनेऊ भी उसी का प्रतीक है ! जनेऊ तीन धागों में बनता हैं ! और उन तीन धागों में फिर तीन धागे आते हैं ! कुल मिलाकर 3 x 3 = 9 धागे !

तीन मुख्य धागों का अर्थ है – इस जीवन में इन तीन ऋण को उतारना है – देव ऋण , पितृ ऋण और ऋषि ऋण ! और यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है।यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है। नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वार मिलाकर कुल नौ होते हैं। पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।

तो अंततः कुल मिलाकर यह कर्तव्य बोध कराने का प्रतीक माध्यम है ! गाँठ लगाने का भी यही आशय है कि अमुक बात ध्यान रहे ! हम लोग बोलते हैं न कि यह गाँठ बाँध लो ! तो ब्रह्म सूत्र में जो गांठें डाली जाती है वह एकमात्र ध्यान रखने के लिए होती हैं कि जीवन में यह मुख्य उद्देश्य से न भटके और निरंतर ध्यान बना रहे ! अंततः इसका उद्देश्य यही है कि सब कर्मों की पूर्ती के पश्चात इसी शरीर में तुम्हें भगवदप्राप्ति करनी ही करनी है , और कोई उपाय नहीं है !

लेकिन आजकल लोग शौक में जनेऊ पहनते हैं ! अपने आपको हिन्दू दिखाने के लिए जनेऊ पहनते हैं ! भले उसके गांठों का और जनेऊ के धागों में से किसी एक का भी पालन या कर्तव्य पूर्ति न करते हों ! होता भी यही है , मूल बात का लोप हो जाता है और हम मात्र प्रतीकों को ढोते हैं ! आजकल के पंडितों ने तो और उसमें टीम टोटका घुसा दिया है ! मूल बात भगवद प्राप्ति का सार बिलकुल लोप कर देंगे उसमें से !

यह टीका , माला , जनेऊ इत्यादि सबका एकमात्र उद्देश्य यही है निरंतर उसका ध्यान बनाये रखना ! लेकिन उसका ध्यान छोड़कर आज सब किया जाता है ! हर प्रतीक धारण किये जाते हैं ! बाह्य आडम्बर बाकी रह गया है और मूल तत्व का लोप हो गया !

जिसके चिंतन में निरंतर भगवान् हैं , जिसका पल पल स्व कल्याण के चिन्तन में बीत रहा है , जिसके अंतःकरण में भगवन प्रेम के भाव हिलोरे ले रहे हैं , उसको किसी टीका , माला , जनेऊ या किसी बाह्य आडम्बर कि आवश्यकता नहीं है !

यह छोड़ना नहीं पड़ता , स्वयमेव छूट जाता है ! तब चाहे इसे पहने या न पहने ! कभी कभी संत महापुरुष इन बाह्य प्रतीकों को इसलिए धारण करते हैं ताकि उनको देखकर साधारण मनुष्य जो अभी उस अवस्था तक नहीं पहुंचा है , वह धारण करे और उसका लाभ प्राप्त करे ! लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि लोग उन्हीं प्रतीकों में पूरा जीवन भर उलझे रह जाते हैं और दूसरों को भी उलझा जाते हैं ! अंत में परिणाम शून्य ! क्योंकि भगवान् को शरीर से या बाह्य प्रतीकों से नाम मात्र भी मतलब नहीं , उन्हें तो शुद्ध अंतःकरण चाहिए !

जितना भी कुछ बनाया गया है या जितना भी शास्त्र में तंत्र मंत्र यन्त्र पंथ इत्यादि बनाया गया है , एकमात्र और एकमात्र भगवद प्राप्ति के उद्देश्य से ही बनाया गया है !

इसको छोड़कर किसी वेद शास्त्र , बाइबिल , धम्मपिटक , कुरआन , में कुछ नहीं है , कुछ नहीं है , यह स्वरण अक्षरों में कलमबद्ध कर लें !

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