Q.

Answer by Shwetabh Pathak :-

दीक्षा का अर्थ पहले समझना पड़ेगा ।

जो गुरु की इच्छा द्वारा दिया गया हो।

दीक्षा गुरु के द्वारा ही मिलती है। लेकिन दीक्षा के बहुत से नियम हैं।

गुरु तभी दीक्षा देगा जब पात्रता देखेगा या अधिकारी जो होगा तभी ।

आज की तरह नहीं बस सबको पकड़ो और कान फूँक दो। आजकल तो परिपाटी है जो जितने शिष्य बना लेगा , वह उतना ही प्रसिद्ध होगा , उसका aura उतना बड़ा ।

सब धोखा है।

गुरु बिना शिष्य की पात्रता देखे बिना शिष्य नहीं बनाता । जो बनाता है वह पाखंडी है ।

प्रश्नोपनिषद जानते हैं कैसे बना था ???

जितने उपनिषद बने हैं वह सभी प्रश्न उत्तर पर ही आधारित हैं।

ऋषि भारद्वाज पुत्र सुकेशा , शिविकुमार सत्यकाम , गर्ग गोत्र के सौरयायिनि , कोशल पुत्र आश्वलायन , भार्गव , कात्य ऋषि के प्रपौत्र कबन्धी , यह सब ऋषि पिप्पलाद के पास दीक्षा या ब्रह्मज्ञान हेतु गए ।

लेकिन ऋषि पिप्पलाद ने किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं दिया । सभी ऋषि बालकों को कई वर्षों तक व्रत , उपवास , ब्रह्मचर्य का नियम धारण करने को और विभिन्न तरह के तप करने का आदेश दिया कि अभी तुम लोग लायक ही नहीं हो , अधिकारी ही नहीं हो ।

एक को तो तीन बार वापस भेजा। जब सब परिपक्व होकर लौटे , पात्र शुद्ध हो गया तब उन्होंने कहा ,हाँ अब प्रश्न पूछो। यही प्रश्न उत्तर , पिप्पलाद और अन्य ऋषियों का प्रश्नोपनिषद कहलाया ।

तो जब तक बिजली की fitting घर मे न ही जाए , wirings न पड़ जाए , तब तक power house कहाँ से बिजली देगा ?? तो आजकल यह जो तेजी से प्रचलन चल पड़ा है , यह मात्र अज्ञानता के कुछ नहीं है । छोटे छोटे बालको तक का जिसे अभी potty करके धोना तक नहीं आता , उसे दीक्षा दिया जा रहा है।

दीक्षा powerful चीज़ होती है ।

देखिये दो प्रकार की दीक्षा होती है।

एक साधारण रूप से जब गुरु नाम देकर , यह साधना बताता है कि यह करो । जैसे कोई कहता है :- बस इसे जपो :- तत्वमसि ।

वही मैं हूँ ।

कोई कहता है सोहं जपो । जो वह है वही मैं हूँ । यह जपो ।

कोई इदं न मम देता है ।

कोई भगवान का मंत्र देता है कि ॐ कृष्णाय नमः । ॐ शिवाय नमः। ॐ आदित्याय नमः , ॐ गणेशाय नमः । इत्यादि । इसको निरंतर जपो और उसी पर ध्यान केंद्रित करो ।

इसे आजकल लोग दीक्षा बोल देते हैं । और सब यही करते हैं । ये दीक्षा वीक्षा नहीं होता , यह तो पात्र की शुद्धिकरण के लिए साधना करना है ।

जो वास्तविक दीक्षा है , वह ब्रह्मनिष्ठ गुरु तब देता है जब पात्र बन गया हो।

जब साधना के द्वारा पात्र बन जाता है तब गुरु चाहे दूसरे ब्रह्मांड में भी क्यों न हो , वह अंतःकरण में आकर स्वतः दीक्षा , शक्तिपात या प्रेम दान कर देगा ।

और ऐसा नहीं है कि वह कान फूंक कर देगा ।

वह छूकर , देखकर , बिना बोले , गुस्सा होकर , हंसकर , रूठकर , या करोड़ों कोस दूर होगा तब दे देगा। कान फूँकने का अर्थ यह है कि अब एकमात्र गुरु के शब्दों को ही सुनना है और कान से किसी नीच ज्ञान या प्रवृत्तिपरक ज्ञान को नहीं सुनना है । बस इतना है।

अब आजकल लोग इस प्रतीक को जानते नहीं , बस परंपरा ढोते हैं और यह अब लाखों वर्ष की परंपरा बन गयी है बिना मूल जाने ।

जब गुरु दीक्षा देगा न तब कहीं के नहीं रहोगे । प्रेम से हृदय फटने लगेगा । स्वयमेव ज्ञान , वैराग्य प्रेम आ जाएगा । समस्त वेद शास्त्रों से लेकर तमाम ग्रन्थों का सार मस्तिष्क में स्वयं प्रकट हो जाएगा ।

यह दीक्षा होती है ।

दीक्षा का अर्थ है Power देना । शक्ति पात कर देना। जिसको प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी शेष नहीं रह जाता । कुलगुरु तो आपको कर्मकांडीय या जो सात्विक ज्ञान है या कुल से सम्बंधित ज्ञान है , वह देंगे। वास्तविक गुरु तो महापुरुष होता है।

भीड़ चाल में न फँसे कि मेरे मित्र ने उन्हें गुरु बनाया तो मैं भी उन्हें ही बनाऊंगा । या मेरी मम्मी पापा ने उन्हें गुरु बनाया तो मैं भी बनाऊंगा।

बिल्कुल नहीं !!!

सबके संस्कार , सबकी साधना , सबके मतिभ्रम अलग अलग है ।

एकमात्र वही गुरु बनाएं जिसके सानिध्य से आपके अंदर के विकार नष्ट हो रहे हों , भगवान से प्रेम बढ़ रहा हो , संसार से वैराग्य उत्पन्न हो रहा हो । जो आपको सही दिशा दिखा सके ,आपके मन मे उठते प्रत्येक विचार या भ्रम या संदेह को दूर सके ,जो आपको साधना करवा सके ।

ऐसा नहीं कि जिसने बहुत बड़े बड़े आश्रम बना लिए हो , जिनके लाखों शिष्य हों , या जिनके दर्शन दुर्लभ हों , दूर से बस आप झलक देख पाते हों , न उनसे मिल पाते हैं , न पूछ पाते हों ,न अपने हृदय के संदेह को दूर कर पाते हों , वह गुरु बनाने से कोई लाभ नहीं ।

बस आपको बाहर से यह होगा कि हमने गुरु बना लिया है बाकी का गुरुत्व का एक प्रतिशत भी लाभ नहीं मिलेगा । इस संबंध में बस एक यही नियम है कि :- ज्ञान दे अज्ञान नासै , सोई गुरुवर प्यारे । शास्त्र ज्ञाता भी हो गुरु अरु भक्त भी हो प्यारे । वो करावे ज्ञान हरि को , श्रुति पुरानन प्यारे । वो करावे हरि मिलन की साधना भी प्यारे । तो इस संबंध में बस यही एक नियम है कि गुरु श्रोतिय भी हो और ब्रह्मनिष्ठ भी हो।

जो आपके अज्ञान को नष्ट कर ज्ञान आपके अंदर ज्ञान की रचना करे , फिर उस ज्ञान की रक्षा करे अर्थात ऐसा नहीं कि बस ज्ञान दे दिया और छुट्टी , बल्कि बार बार आपके ज्ञान का repeatation करवाकर उसे पुष्ट कर उसकी रक्षा करे और आपके अज्ञान का प्रलय करे या नष्ट करे ।

बस इन्हीं तीनों गुणों के कारण गुरु को ब्रह्मा , विष्णु और शंकर कहा गया है। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु....... मतलब सब कुछ ज्ञान से सम्बंधित । क्योंकि यही पहली सीढ़ी है आगे बढ़ने की।

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