Q.

Answer by Shwetabh Pathak :-

सगुण सविशेष साकार भगवान को प्राप्त करने के लिए जो साधना की जाती है उसका नाम भक्ति है ।

यह भक्ति भी दो प्रकार की होती है।

साधन भक्ति

और सिद्धा भक्ति

भक्ति भज धातु से बनी है जिसका अर्थ है सेवा करना या भजन करना ।

सेवा क्यों ???

क्योंकि ज्ञानियों और योगियों को मुक्ति चाहिए जिसमें एकमात्र अपने लिए ही होता है ,अहम भाव को लेकर।

जहाँ अहम भाव समाप्त होकर अपने प्रेमास्पद के निमित्त सुख की कामना की जाती है वहीं से भक्ति का साम्राज्य शुरू होता है।

भक्ति के पाँच भाव होते हैं ।

शांत भाव

दास्य भाव

सख्य भाव

वात्सल्य भाव

माधुर्य भाव।

शांत भाव योगियों का होता है । जिसमें वह भगवान के गुणों का चिंतन कर उनके स्वरूप को हृदय में धारण करता है।

यह भगवान के शांत स्वरूप का चिंतन होता है जिसमें लीला नहीं होती एकमात्र भगवान का धाम होता है।

इसमें सारूप्य, सामीप्य , सालोक्य और सार्ष्टि मुक्ति आती है।

इसके बाद आता है

दास्य भाव :- इसमें हम दास और वह स्वामी के रूपः में भक्ति होती है। नित्य दास के रूपः में हम उनका स्मरण चिंतन और उनकी सेवा की कामना के लिए भक्ति करते हैं। जैसे हनुमान जी दास्य भाव से भक्ति करते हैं । अधिकतर भगवान के अवतारों की दास्य भाव से भक्ति की जाती है। जैसे भगवान राम , शिव , दुर्गा , गणेश , हनुमान जी इत्यादि की।

सख्य भाव :- भगवान को सखा रूप में प्यार करना या भक्ति करना । जैसे गोप बालक का ,सुदामा का , सुग्रीव का इत्यादि । लेकिन साधारण जीवो को भगवान के अवतारों के सख्य भाव में भक्ति करने के व्विधान में अड़चन है। क्योंकि भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे , भगवान शिव भी दास्य भाव से भक्ति की जा सकती है ।सख्य में भी आ सकते हैं लेकिन वहाँ भी मर्यादा है। आप भगवान शिव के कंधे पर नहीं बैठ सकते।

फिर आता है वात्सल्य भाव :-

इसमें भगवान को पुत्र के रूपः में प्रेम करते हैं। जैसे यशोदा , कौशल्या , दशरथ ,और आज तमाम लोग भगवान को लड्डू गोपाल वाला रूप लेकर चलते हैं वात्सल्य भाव वाला अपने नीचे भाव मे जा सकता है ।ऐसे ही सख्य भाव वाला दास्य और शांत में जा सकता है। लेकिन नीचे भाव वाला अपने ऊपर भाव वाले पर नहीं जा सकता ।

अब आता है अंतिम भाव और उत्कृष्टम भाव

वह है माधुर्य भाव :-

इसमें भगवान को अपना प्रियतम मानकर प्रेम किया जाता है। इस भाव में जो दूरी अन्य भावों में थी वह समाप्त हो जाती है । अंतरंगता बढ़ जाती है । इसमें प्रेम ,समर्पण , त्याग सब होता है। यह उच्चभाव होता है । इस भाव के लोग सभी भावों में जा सकते हैं। शांत भाव से लेकर माधुर्य भाव तक सभी। माधुर्य भाव से न भगवान शंकर को प्रेम कर सकते हैं न भगवान राम को ,एकमात्र भगवान कृष्ण को ही माधुर्य भाव से प्रेम किया जा सकता है।

भगवान कृष्ण को सभी भावों से प्रेम किया जा सकता है।

देखिये दो प्रकार की आध्यात्मिक क्रिया या स्वरूप होता है ।

एक अहम भाव रखता है ।

योगी और ज्ञानी

मुझे मुक्ति मिल जाये , मैं ही ब्रह्म हूँ , जो वही है वही मैं हूँ ,अहम ब्रह्मास्मि ,सोहं , तत्वमसि , इदम न मम इत्यादि ।

सबमें उसकी अपने लिए ही भावना है कि मेरा मैं मैं बस ।

भक्ति में प्रवेश करते ही यह अहम भाव खत्म हो जाता है ।

यहाँ एकमात्र स्वामी के सुख की चिंता होती है।

जहाँ तक अहम रहता है ,वहाँ तक मुक्ति या मोक्ष मिलता है ।

भक्ति मार्ग का वही अधिकारी है जो स्व छोड़कर , अपने स्वामी प्रियतम प्रेमास्पद के विषय मे ही सोचता है , हॉं अपनी भी भावना रहती है ।

लेकिन ज्ञानियों योगियों में अपनी "ही" भावना होती है।

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